शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

मुक्तिबोध

(13 नवंबर, 1917 – 11 सितंबर, 1964) 
मुक्तिबोध के जीवन और उनकी कविता को लोग अपने अपने मतानुसार विश्लेषित करते हैं.
हरिशंकर परसाई ने मुक्तिबोध को ‘विद्रोही’ कहा
शमशेर बहादुर सिंह ने विलक्षण प्रतिभा’
अशोक वाजपेयी ने ‘कठिन समय के कठिन कवि’
. श्रीकांत वर्मा  ने ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’
नंदकिशोर नवल 
नें ‘आत्मसंघर्ष का कवि’
देवीशंकर अवस्थी
  का कथन मुक्तिबोध उनके लिए ‘अजनबी नहीं’ 
एक ओर कुछ लोग मुक्तिबोध पर दुरूहता का आरोप लगाते हैं तो दूसरी ओर है


मुक्तिबोध : जीवन और कविता उन्होंने 1935 से ही साहित्य सृजन शुरू कर दिया था. वे अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ (1941) के पहले कवि थे. मुक्तिबोध के समय पर दृष्टि केंद्रित करने से यह स्पष्ट होता है कि लंदन में 1934 में प्रगतिशील लखक संघ का गठन हुआ. प्रेमचंद ने संगठन का स्वागत किया. लखनऊ में अप्रैल 1936 में प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन संपन्न हुआ. यही समय मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता का प्रारंभिक समय था. 1935 में उनकी पहली रचनाएँ प्रकाशित हुईं, जिन पर माखनलाल चतुर्वेदी का प्रभाव रहा. इसमें संदेह नहीं कि जीवन के नित नए अनुभव उन्हें निरंतर प्राप्त होते रहे. इसीलिए शायद वे कहते हैं कि-
मेरे जीवन का विराम!/ नित चलता ही रहा है मेरा मनोधाम/ गति में ही उसकी संसृति है./ नित नव जीवन में उन्नति है/ नित नव अनुभव हैं अविश्राम/ मन सदा तृषित संतत सकाम- (जीवन यात्रा)/ मुक्तिबोध रचनावली-1
मुक्तिबोध का काव्य संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’(1964)  उनकी मृत्यु के बाद 1964 में प्रकाशित हुआ.

प्रमुख कृतियाँ 
 कामायनी : एक पुनर्विचार,
नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध,
नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र,
समीक्षा की समस्याएँ,
भूरी-भूरी खाक धूल,
एक साहित्यिक की डायरी,
काठ का सपना,
विपात्र,
सतह से उठता आदमी,
मेरे युवजन मेरे परिजन,
भारत : इतिहास और संस्कृति,
शेष-अशेष,
प्रश्नचिह्न बौखला उठे आदि. उनका समग्र साहित्य रचनावली के छह खंडों में प्रकाशित है.

  • कविता ‘अँधेरे में’ (1964) यह कविता पहली बार हैदराबाद से प्रकाशित पत्रिका ‘कल्पना’ में मुक्तिबोध की मृत्यु के एक महीने के बाद छपी. नामवर सिंह को यह कविता ‘परम अभिव्यक्ति की खोज’ प्रतीत होती है तो रामविलास शर्मा को ‘मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष’
  • 1981 में ‘सतह से उठता आदमी’ को मणि कौल ने फिल्माया. 2004 में मुक्तिबोध के जीवन को ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ नामक नाट्य रूप में प्रस्तुत किया गया.
  • मुक्तिबोध को ज़िंदगी के अंतिम क्षण में भी संघर्ष करना पड़ा. मानो संघर्ष ही उनका जीवन है. शायद इसीलिए उन्होंने लिखा - मुझे कदम-कदम पर/ चौराहे मिलते हैं/ बाँहें फैलाए!!/ एक पैर रखता हूँ/ कि सौ राहें फूटतीं,/ व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ;/ बहुत अच्छे लगते हैं/ उनके तजुर्बे और अपने सपने .../ सब अच्छे लगते हैं;/ अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,/ मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ, जाने क्या मिल जाए!! मुझे कदम-कदम पर/ (गजानन माधव मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ )


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