शनिवार, 11 नवंबर 2017


केदारनाथ अग्रवाल 
          जनवादी काव्य-सर्जक
कवि चेतन सृष्टि के कर्ता हैं । हम कवि लोग ब्रह्मा हैं ।
कवि को महाकाल मान नहीं सकता । मैं उसी की लड़ाई लड़ रहा हूँ । - केदारनाथ अग्रवाल

 जन्म-1 अप्रैल, 1911 -
मृत्यु- 22 जून, 2000 को हुई।
काव्य-यात्रा का आरंभ लगभग 1930 से माना जा सकता है ।
अशोक त्रिपाठी जी ने उन्हें “केवल भाववादी रूझान की कविताएँ” माना है ।
पहला काव्य-संग्रह- 'युग की गंगा' देश की आज़ादी के पहले मार्च, 1947 में प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए यह संग्रह एक बहुमूल्य दस्तावेज़ है।
केदार जी की प्रकाशित कृतियों की सूची
काव्य-संग्रह – युग की गंगा (1947), नींद के बादल (1947), लोक और आलोक (1957), फूल नहीं रंग बोलते हैं (1965), आग का आईना (1970), गुलमेहंदी (1978), आधुनिक कवि-16 (1978) पंख और पतवार (1980), हे मेरी तुमा (1981), मार प्यार की थापें (1981), बंबई का रक्त-स्नान (1981), कहें केदार खरी-खरी (1983 – सं.-अशोक त्रिपाठी), आत्म-गंध (1988), अनहारी हरियाली (1990), खुली आँखें खुले डैने (1993), पुष्प दीप (1994), वसंत में प्रसन्न हुई पृथ्वी (1966 – सं. – अशोक त्रिपाठी), कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह (1997 - सं. – अशोक त्रिपाठी), प्रतिनिधि कविताएँ (2010 – सं. – अशोक त्रिपाठी)
अनुवाद – देश-देश की कविताएँ (1970),
उपन्यास – पदिया (1985), यात्रा-वृत्तांत – बिस्ती खिले गुलाबों की (रूस की यात्रा का वृत्तांत – 1975), पत्र-साहित्य – मित्र-संवाद (1991 – सं.- रामविलास शर्मा, अशोक त्रिपाठी) साक्षात्कार – मेरे साक्षात्कार (2009 - सं.- नरेंद्र पुंडरीक)
सम्मान
सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिंदी संस्थान पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार आदि।


जिंदगी कोवह गढ़ेंगे जो शिलाएँ तोड़ते हैं,
जो भगीरथ नीर की निर्भय शिराएँ मोड़ते हैं ।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम मैं मानता हूँ ।”      (‘जो शिलाएँ तोड़ते हैं ’/9.11.1948 – प्रतिनिधि कविताएँ)
शोषितों-पीड़ितों का पक्ष लेते हुए उन्होंने तमाम वर्गों को समेटा और पूँजीपतियों और महाजनों को आड़े हाथों लिया । अपनी लेखनी से उन्होंने किसान की अनन्य आराधना की है ।
“मैं तो तुमको मान मुहब्बत सब देता हूँ
मैं तुम पर कविता लिखता हूँ
कवियों में तुमको लेकर आगे बढ़ता हूँ
असली भारत पुत्र तुम्हीं हो
असली भारत पुत्र तुम्हीं हो
मैं कहता हूँ ।
प्रकृति-सौंदर्य की उपासन
केदारजी प्रकृति-सौंदर्य के विराट एवं विशिष्ट उपासक हैं । प्रकृति के रमणीय भावना-चित्रों की प्रस्तुति में केदारजी बोजोड़ कवि हैं । प्रकृति के साथ सहज भावनात्मक अनुभूतियों को जोड़कर उन्होंने जितनी भी कविताएँ लिखी हैं, उनमें अधिकांश कविताएँ पाठकों में वही भावानुभूती पैदा करने में सक्षम हैं । उनकी कविता ‘बसंती हवा’ का रसास्वदन करने वाले किसी भी पाठक में अंश मात्र भी प्रकृति-प्रेम जागृत नहीं होता है, तो वहाँ केदारजी की असफलता ही मान सकते हैं । सच्चाई में, ऐसा होना संभव ही नहीं है । बसंती हवा के वर्णन में कवि की तन्मयता कविता को बार-बार पढ़कर ही समझी जा सकती है । तो आईए आनंद लेते है उनकी एक कालजयी रचना
हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ
सुनो बात मेरी अनोखी हवा हूँ
बड़ी बावली हूँ
बड़ी मस्तमौला।
नहीं कुछ फ़िकर है
बड़ी ही निडर हूँ
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ
मुसाफिर अजब हूँ।
न घर बार मेरा
न उद्देश्य मेरा
न इच्छा किसी की
न आशा किसी की
न प्रेमी न दुश्मन
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ
हवा हूँ हवा मैं
बसंती हवा हूँ।
जहाँ से चली मैं
जहाँ को गई मैं
शहर गाँव बस्ती
नदी खेत पोखर
झुलाती चली मैं
हवा हूँ हवा मैं
बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ
थपाथप मचाया
गिरी धम्म से फिर
चढ़ी आम ऊपर
उसे भी झकोरा
किया कान में ''कू''
उतर कर भगी मैं
हरे खेत पहुँची
वहाँ गेहुँओं में
लहर खूब मारी।
पहर दो पहर क्या
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं।
खड़ी देख अलसी
मुझे खूब सूझी
हिलाया झुलाया
गिरी पर न अलसी
इसी हार को पा
हिलाई न सरसों
झुलाई न सरसों
हवा हूँ हवा मैं
बसंती हवा हूँ।
मुझे देखते ही
अरहरी लजाई
मनाया बनाया
न मानी न मानी
उसे भी न छोड़ा
पथिक आ रहा था
उसी पर ढकेला
हँसी ज़ोर से मैं
हँसी सब दिशाएँ
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी।
हवा हूँ हवा मैं
बसंती हवा हूँ।


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