गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

प्‍लास्टिक क्‍या है?

प्‍लास्टिक, पॉलिमर्स हैं जो कि ऐसे बडे़ अणु होते हैं जिनमें मोनोमर्स नामक रिपीटिंग यूनिट्स होती हैं। प्‍लास्टिक बैग की जब बात की जाती है तो रिपीटिंग यूनिट्स एथिलीन होती हैं। जब एथिलीन अणुओं को पॉलिथिलीन बनाने के लिए पॉजिमराइज्‍ड किया जाता है तो वे कार्बन अणुओं की एक लंबी श्रृंखला बनाते हैं। इनमें प्रत्‍येक कार्बन दो हाइड्रोजन अणुओं के साथ जुड़ा होता है।

प्‍लास्टिक के थैले किसके बनते हैं?

प्‍लास्टिक के थैले पॉलिमर्स के तीन प्रकारों में से एक द्वारा बनती हैं - पॉलिथिलीन- हाई डेंसिटी पॉलिथिलीन (एचडीपीई), लो डेंसिटी पॉलिथिलीन (एलडीपीई), या लीनियर लो-डेंसिटी पॉलिथिलीन (एलएलडीपीई)। किराने की थैलियां अधिकतर एचडीपीई द्वारा बनाई जाती हैं और थैले ड्राई क्‍लीनर एलडीपीई से। इन दोनों में सबसे बड़ा अंतर पॉलिमर श्रृंखला की ब्रांचिंग की डिग्री का है। एचडीपीई और एलएलडीपीई में रैखिक अशाखित श्रृंखला होती हैं वहीं एलडीपीई शाखित होती हैं।

कोपेनहेगन संयुक्त राष्ट्र मौसम परिवर्तन सम्मेलन

तापमान वृद्धि रोकने, उत्सर्जन घटाने तथा वित्त जुटाने का राजनीतिक समझौता
कोपेनहेगन में संयुक्त राष्ट्र मौसम परिवर्तन सम्मेलन, उत्सर्जन में अर्थपूर्ण कमी के लिए वैश्विक तापमान वृद्धि रोकने के लिए देशों के बीच समझौते तथा मौसम परिवर्तन से मुकाबले के लिए विकासशील दुनिया में गतिविधियां आरम्भ करने हेतु वित्त जुटाने की प्रतिबद्धता के साथ सम्पन्न हुआ।
सम्मेलन में विश्व के नेता ‘कोपेनहेगन’ समझौते पर सहमत हुए, जिसका अधिकांश देशों ने समर्थन किया। ‘कोपेनहेगन समझौता’ इस बात को मान्यता देता है कि मौसम परिवर्तन के सबसे खराब प्रभावों पर अंकुश लगाने के लिए वैश्विक तापमान में 2 डिग्री से कम की वृद्धि होनी चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, समझौता यह उल्लिखित करता है कि औद्योगीकृत देश अकेले या संयुक्त रूप से, 2020 से पूरे अर्थतंत्र में मापनेयोग्य उत्सर्जन लक्ष्यों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, जिन्हें 31 जनवरी 2010 से पहले समझौते में सूचीबद्ध किया जाना है।
बढते अर्थतंत्र वाले प्रमुख देशों के साथ कई विकासशील देशों ने प्रति दो वर्षों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन सीमित करने के उनके प्रयासों की जानकारी देने पर सहमति जताई, उनकी स्वैच्छिक शपथ को 31 जनवरी 2010 से पूर्व सूचीबद्ध करना है।

जलवायु परिवर्तन

हमें गर्मी के मौसम में गर्मी व सर्दी के मौसम में ठण्ड लगती है। ये सब कुछ मौसम में होने वाले बदलाव के कारण होता है। मौसम, किसी भी स्थान की औसत जलवायु होती है जिसे कुछ समयावधि के लिये वहां अनुभव किया जाता है। इस मौसम को तय करने वाले मानकों में वर्षा, सूर्य प्रकाश, हवा, नमी व तापमान प्रमुख हैं।
मौसम में बदलाव काफी जल्दी होता है लेकिन जलवायु में बदलाव आने में काफी समय लगता है और इसीलिये ये कम दिखाई देते हैं। इस समय पृथ्वी के जलवायु में परिवर्तन हो रहा है और सभी जीवित प्राणियों ने इस बदलाव के साथ सामंजस्य भी बैठा लिया है। 
परंतु, पिछले 150-200 वर्षों में ये जलवायु परिवर्तन इतनी तेजी से हुआ है कि प्राणी व वनस्पति जगत को इस बदलाव के साथ सामंजस्य बैठा पाने में मुश्किल हो रहा है। इस परिवर्तन के लिये एक प्रकार से मानवीय क्रिया-कलाप ही जिम्मेदार है।

जलवायु परिवर्तन के कारण

जलवायु परिवर्तन के कारणों को दो बागों में बांटा जा सकता है- प्राकृतिक व मानव निर्मित
I. प्राकृतिक कारण
जलवायु परिवर्तन के लिये अनेक प्राकृतिक कारण जिम्मेदार हैं। इनमें से प्रमुख हैं- महाद्वीपों का खिसकना, ज्वालामुखी, समुद्री तरंगें और धरती का घुमाव।
  • महाद्वीपों का खिसकना
हम आज जिन महाद्वीपों को देख रहे हैं, वे इस धरा की उत्पत्ति के साथ ही बने थे तथा इनपर समुद्र में तैरते रहने के कारण तथा वायु के प्रवाह के कारण इनका खिसकना निरंतर जारी है। इस प्रकार की हलचल से समुद्र में तरंगें व वायु प्रवाह उत्पन्न होता है। इस प्रकार के बदलावों से जलवायु में परिवर्तन होते हैं। इस प्रकार से महाद्वीपों का खिसकना आज भी जारी है।
  • ज्वालामुखी
जब भी कोई ज्वालामुखी फूटता है, वह काफी मात्रा में सल्फरडाई ऑक्साइड, पानी, धूलकण और राख के कणों का वातावरण में उत्सर्जन करता है। भले ही ज्वालामुखी थोड़े दिनों तक ही काम करें लेकिन इस दौरान काफी ज्यादा मात्रा में निकली हुई गैसें, जलवायु को लंबे समय तक प्रभावित कर सकती है। गैस व धूल कण सूर्य की किरणों का मार्ग अवरूद्ध कर देते हैं, फलस्वरूप वातावरण का तापमान कम हो जाता है।
  • पृथ्वी का झुकाव
धरती 23.5 डिग्री के कोण पर, अपनी कक्षा में झुकी हुई है। इसके इस झुकाव में परिवर्तन से मौसम के क्रम में परिवर्तन होता है। अधिक झुकाव का अर्थ है अधिक गर्मी व अधिक सर्दी और कम झुकाव का अर्थ है कम मात्रा में गर्मी व साधारण सर्दी।
  • समुद्री तरंगें
समुद्र, जलवायु का एक प्रमुख भाग है। वे पृथ्वी के 71 प्रतिशत भाग पर फैले हुए हैं। समुद्र द्वारा पृथ्वी की सतह की अपेक्षा दुगुनी दर से सूर्य की किरणों का अवशोषण किया जाता है। समुद्री तरंगों के माध्यम से संपूर्ण पृथ्वी पर काफी बड़ी मात्रा में ऊष्मा का प्रसार होता है।
II. मानवीय कारण
ग्रीन हाउस प्रभाव
पृथ्वी द्वारा सूर्य से ऊर्जा ग्रहण की जाती है जिसके चलते धरती की सतह गर्म हो जाती है। जब ये ऊर्जा वातावरण से होकर गुज़रती है, तो कुछ मात्रा में, लगभग 30 प्रतिशत ऊर्जा वातावरण में ही रह जाती है। इस ऊर्जा का कुछ भाग धरती की सतह तथा समुद्र के ज़रिये परावर्तित होकर पुनः वातावरण में चला जाता है। वातावरण की कुछ गैसों द्वारा पूरी पृथ्वी पर एक परत सी बना ली जाती है व वे इस ऊर्जा का कुछ भाग भी सोख लेते हैं। इन गैसों में शामिल होती है कार्बन डाईऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व जल कण, जो वातावरण के 1 प्रतिशत से भी कम भाग में होते है। इन गैसों को ग्रीन हाउस गैसें भी कहते हैं। जिस प्रकार से हरे रंग का कांच ऊष्मा को अन्दर आने से रोकता है, कुछ इसी प्रकार से ये गैसें, पृथ्वी के ऊपर एक परत बनाकर अधिक ऊष्मा से इसकी रक्षा करती है। इसी कारण इसे ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता है।
ग्रीन हाउस प्रभाव को सबसे पहले फ्रांस के वैज्ञानिक जीन बैप्टिस्ट फुरियर ने पहचाना था। इन्होंने ग्रीन हाउस व वातावरण में होने वाले समान कार्य के मध्य संबंध को दर्शाया था।
ग्रीन हाउस गैसों की परत पृथ्वी पर इसकी उत्पत्ति के समय से है। चूंकि अधिक मानवीय क्रिया-कलापों के कारण इस प्रकार की अधिकाधिक गैसें वातावरण में छोड़ी जा रही है जिससे ये परत मोटी होती जा रही है व प्राकृतिक ग्रीन हाउस का प्रभाव समाप्त हो रहा है।
कार्बन डाईऑक्साइड तब बनती है जब हम किसी भी प्रकार का ईंधन जलाते हैं, जैसे- कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस आदि। इसके बाद हम वृक्षों को भी नष्ट कर रहे है, ऐसे में वृक्षों में संचित कार्बन डाईऑक्साइड भी वातावरण में जा मिलती है। खेती के कामों में वृद्धि, ज़मीन के उपयोग में विविधता व अन्य कई स्रोतों के कारण वातावरण में मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस का स्राव भी अधिक मात्रा में होता है। औद्योगिक कारणों से भी नवीन ग्रीन हाउस प्रभाव की गैसें वातावरण में स्रावित हो रही है, जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन, जबकि ऑटोमोबाईल से निकलने वाले धुंए के कारण ओज़ोन परत के निर्माण से संबद्ध गैसें निकलती है। इस प्रकार के परिवर्तनों से सामान्यतः वैश्विक तापन अथवा जलवायु में परिवर्तन जैसे परिणाम परिलक्षित होते हैं।
हम ग्रीन हाउस गैसों में किस प्रकार अपना योगदान देते हैं?
  • कोयला, पेट्रोल आदि जीवाष्म ईंधन का उपयोग कर
  • अधिक ज़मीन की चाहत में हम पेड़ों को काटकर
  • अपघटित न हो सकने वाले समान अर्थात प्लास्टिक का अधिकाधिक उपयोग कर
  • खेती में उर्वरक व कीटनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग कर

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

जलवायु परिवर्तन से मानव पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। 19 वीं सदी के बाद से पृथ्वी की सतह का सकल तापमान 03 से 06 डिग्री तक बढ़ ग़या है। ये तापमान में वृद्धि के आंकड़े हमें मामूली लग सकते हैं लेकिन ये आगे चलकर महाविनाश को आकार देंगे, जैसा कि नीचे बताया गया है-
(क) खेती
बढ़ती जनसंख्या के कारण भोजन की मांग में भी वृद्धि हुई है। इससे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बनता है। जलवायु में परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती पर पडेग़ा क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिट्टी की क्षमता, कीटाणु और फैलने वाली बीमारियां अपने सामान्य तरीके से अलग प्रसारित होंगी। यह भी कहा जा रहा है कि भारत में दलहन का उत्पादन कम हो रहा है। अति जलवायु परिवर्तन जैसे तापमान में वृद्धि के परिमाणस्वरूप आने वाले बाढ़ आदि से खेती का नुकसान बढ़ेगा।
(ख) मौसम 
गर्म मौसम होने से वर्षा का चक्र प्रभावित होता है, इससे बाढ़ या सूखे का खतरा भी हो सकता है, ध्रुवीय ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के स्तर में वृद्धि की भी आशंका हो सकती है। पिछले वर्ष के तूफानों व बवंडरों ने अप्रत्यक्ष रूप से इसके संकेत दे दिये है।
(ग) समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि
जलवायु परिवर्तन का एक और प्रमुख कारक है समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि। समुद्र के गर्म होने, ग्लेशियरों के पिघलने से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाली आधी सदी के भीतर समुद्र के जल-स्तर में लगभग आधे मीटर की वृद्धि होगी। समुद्र के स्तर में वृद्धि होने के अनेकानेक दुष्परिणाम सामने आएंगे जैसे तटीय क्षेत्रों की बर्बादी, ज़मीन का पानी में जाना, बाढ़, मिट्टी का अपरदन, खारे पानी के दुष्परिणाम आदि। इससे तटीय जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा, खेती, पेय जल, मत्स्य पालन व मानव बसाव तहस नहस हो जाएगी।
(घ) स्वास्थ्य
वैश्विक ताप का मानवीय स्वास्थ्य पर भी सीधा असर होगा, इससे गर्मी से संबंधित बीमारियां, निर्जलीकरण, संक्रामक बीमारियों का प्रसार, कुपोषण और मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होगा।
(ङ) जंगल और वन्य जीवन 
प्राणी व पशु, ये प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले हैं व ये जलवायु परिवर्तन के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। यदि जलवायु में परिवर्तन का ये दौर इसी प्रकार से चलता रहा, तो कई जानवर व पौधे समाप्ति की कगार पर पहुंच जाएंगे।

सुरक्षात्मक उपाय

  • जीवाष्म ईंधन के उपयोग में कमी की जाए
  • प्राकृतिक ऊर्जा के स्रोतों को अपनाया जाए, जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि
  • पेड़ों को बचाया जाए व अधिक वृक्षारोपण किया जाए
  • प्लास्टिक जैसे अपघटन में कठिन व असंभव पदार्थ का उपयोग न किया जाए

वाटर फुटप्रिंट-एक परिचय

पर्यावरण के प्रति जागरुकता और उसके बचाने के प्रयासों के बीच पर्यावरणीय क्षति को प्रत्येक मानव के स्तर पर जानने के प्रयास जारी है। कार्बन की खपत का पता लगाने के लिए कार्बन फुटप्रिंट की अवधारणा का विकास किया गया। इसी प्रकार विभिन्न मानवीय गतिविधियों की संलग्नता के अनुसार पानी की प्रति मानव के अनुसार खपत पता लगाने के लिए वाटर फुटप्रिंट की अवधारणा प्रकाश में आई जिसकी जानकारी यहाँ दी जा रही है।
परिचय
अपने वाटर फुटप्रिंट की गणना कर, आप पता लगा सकते हैं कि आपकी जिंदगी जीने के तरीके से विश्व के जल स्रोतों की कैसे खपत हो रही है। हालाँकि अभी भी बहुत से पश्चिमी देशों में पानी की अधिकांश प्रचुरता है, हमारे प्रतिदिन के बहुत से उत्पादों में आभासी या छुपा जल शामिल होता है। आभासी पानी का उपभोग उन देशों में किया जाता है जहाँ पानी की कमी है। उदाहरण के लिए, एक कप कॉफी के उत्पादन में प्रयोग किए जाने वाले आभासी पानी की मात्रा 140 लीटर तक होती है। आपके वाटर फुटप्रिंट केवल आपके द्वारा प्रयोग किए गए प्रत्यक्ष पानी (उदाहरण के लिए, धुलाई में) को ही नहीं दिखाते, बल्कि आपके द्वारा उपभोग किए गए आभासी पानी की मात्रा को भी दर्शाते हैं।
आपका वाटर फुटप्रिंट
...जितना आप सोचते हैं उससे कहीं अधिक है... केवल पीने के लिए, नहाने के लिए या कपड़े धोने के लिए इस्तेमाल होने वाला पानी ही आपके खाते में नहीं आता। आप जो कपड़े, जूते पहनते हैं, ईंधन इस्तेमाल करते हैं, उसके निर्माण में लगने वाला पानी भी आपके द्वारा की गई खपत में जुड़ता है। प्रतिदिन आप कितना पानी इस्तेमाल कर रहे हैं, इसकी जानकारी होना बेहद जरूरी है। देखिए, किन चीजों में कितना पानी खर्च हो रहा है और क्या है आपका वॉटर फुटप्रिंट।

Water Foot Print

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