साभार पत्र सूचना कार्यालय भारत सरकार स्तनपान : स्वास्थ्यवर्द्धक और जीवनरक्षक पहल |
लेख
स्तनपान सप्ताह – 1 से 7 अगस्त, 2014
डॉ. संतोष जैन पासी*
डॉ. वंदना सभरवाल**
सुश्री आकांक्षा जैन***
प्रत्येक बच्चे को जीवन के शुरूआती वर्षों में उचित शारीरिक वृद्धि और विकास के लिए पर्याप्त पोषण, उचित देखभाल, प्यार और स्नेह की जरूरत होती है। स्तनपान न केवल शिशुकाल/बचपन के दौरान बल्कि बाद के वर्षों में भी उसके स्वस्थ जीवन की नींव रखता है। 6 मास का होने तक बच्चे को केवल मां का दूध पिलाए जाने की जरूरत है, इसके अलावा उसे कुछ और नहीं पिलाया जाना चाहिए। आवश्यकता के अनुसार केवल टॉनिक या पूरक दवाइयां दी जा सकती हैं।
जीवन के पहले 6 महीनों में मां का दूध शिशु को वे सभी पोषण तत्व उपलब्ध कराता है, जो उसके अधिकतम विकास और वृद्धि के लिए जरूरी होते हैं। इसलिए शिशु को पहले 6 महीनों के दौरान केवल स्तनपान कराया जाना चाहिए, अर्थात बच्चा केवल मां के दूध पर ही निर्भर रहे, उसे अन्य कोई तरल पदार्थ यहां तक की पानी भी नहीं पिलाया जाना चाहिए। पोषण के अलावा स्तनपान का सबसे मूल्यवान योगदान यह है कि इससे मां और बच्चे के बीच स्थायी सकारात्मक संबंध विकसित होते हैं, जिससे शिशु का भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक विकास उसके मस्तिष्क वृद्धि पर सीधे ही प्रत्यक्ष प्रभाव डालने में सहायक होता है। स्तनपान शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास को तेजी से बढ़ाता है। 6 माह की आयु के बाद बच्चे को पर्याप्त तथा सुरक्षित पूरक खाद्य पदार्थ खिलाना आवश्यक हो जाता है, ताकि बच्चे की पोषक जरूरतों और स्तनपान के द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे पोषक तत्वों के मध्य अंतर को पूरा किया जा सके। इस प्रकार पहले 6 महीनों में स्तनपान समय पर शुरू करने और उसे केवल स्तनपान ही कराने के साथ-साथ 6 माह की उम्र के बाद पूरक पदार्थ खिलाने के साथ-साथ स्तनपान भी जारी रखना किसी बच्चे की उचित वृद्धि और विकास के प्रमुख आधार हैं। अगर बच्चे स्वस्थ हैं तो पूरा देश स्वस्थ है, जिससे देश की उत्पादकता और आर्थिक वृद्धि में सुधार होता है।
नवजात, शिशु और नन्हें-मुन्नों के लिए स्तनपान पोषण का एक प्राकृतिक और सस्ता तरीका है। कृत्रिम/टॉप पोषण की तुलना में स्तनपान कराना बहुत सस्ता है, जिससे घर के बजट पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्तनपान मानसिक विकास बढ़ाने के साथ-साथ बच्चे की सीखने के कार्य में वृद्धि करता है और वैश्विक प्राथमिक शिक्षा को आसान बनाने में मदद करता है। इससे बच्चे को जीवन में एक अच्छी शुरूआत मिलती है और लिंग भेद समाप्त होता है। स्तनपान कराने से जीवन के पहले वर्ष में बच्चों की मृत्यु दर कम से कम 13 प्रतिशत कम हो जाती है।
इससे जीवन के पहले साल में शिशु मृत्यु दर की संभावनाएं तकरीबन 13 फीसदी घट जाती हैं। इससे अगली बार गर्भधारण का खतरा भी घट जाता है और इस तरह इससे दो बार गर्भधारण के बीच के अंतराल को बढ़ाने में मदद मिलती है। अगर किसी शिशु को उसके जीवन के प्रथम छह माह के दौरान केवल स्तनपान कराया जाए तो संक्रमित मां से बच्चे को एचआईवी का प्रसार होने के आसार कम हो जाते हैं। स्तनपान से औषधि, प्लास्टिक और अल्यूमीनियम कचरे का उत्पादन घटाने में मदद मिलती है और इससे पर्यावरण में निरंतरता सुनिश्चित होती है। यही नहीं, इससे सामुदायिक भागीदारी को भी बढ़ावा मिलता है क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों, विशेषज्ञता और अनुभव वाले लोग एक साझा लक्ष्य पाने के लिए काम करते हैं।
विश्व भर में हर साल जन्म लेने वाले 13.5 करोड़ बच्चों में से 60 फीसदी को पर्याप्त स्तनपान सुलभ नहीं हो पाता है। अपर्याप्त स्तनपान के चलते जो कीमत चुकानी पड़ती है वह बेहद ज्यादा होती है। अपर्याप्त स्तनपान अर्थशास्त्र के अलावा शिशु/बाल मृत्यु दर, संक्रमण और समुदाय की मानसिक व सामाजिक सोच को प्रभावित करने वाली बीमारियों के जोखिम से भी जुड़ा हुआ है।
वहीं, दूसरी ओर जिन शिशुओं को उनके जीवन के प्रथम छह माह के दौरान अच्छा-खासा स्तनपान नसीब होता है, उन्हें उन बच्चों के मुकाबले मधुमेह, हाइपरटेंशन जैसी गैर-संक्रमणीय बीमारियां होने का खतरा काफी कम रहता है जिन्हें या तो बिल्कुल भी नहीं अथवा अपर्याप्त स्तनपान सुलभ होता है। पर्याप्त स्तनपान का लाभ बच्चों को बड़े होने के बाद भी यानी प्रौढ़ावस्था/वृद्धावस्था के दौरान भी मिलता है।
यह वाकई संयोग ही है कि स्तनपान और पूरक पोषण उन सभी आठ मिलेनियम डेवलपमेंट गोल (एमडीजी) से जुड़े हुए हैं जो तकरीबन दो दशक पहले (1990) विभिन्न सरकारों और संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2015 तक गरीबी से लड़ने और सतत विकास सुनिश्चित करने के लिए तय किए गए थे। अत: स्तनपान को संरक्षण, बढ़ावा और समर्थन देकर हममें से सभी अपने बच्चों की अच्छी सेहत सुनिश्चित कर एमडीजी को पाने और इस तरह अपने राष्ट्र के समग्र विकास में काफी हद तक योगदान दे सकते हैं।
हालांकि समुचित स्तनपान और पूरक पोषण के ज्ञान को व्यवहार में तभी लाया जा सकता है जब माताओं, उनके पतियों, अन्य पारिवारिक सदस्यों, खासकर सास और इस तरह से पूरे समुदाय की सोच में वास्तविक बदलाव आयेगा। पर्याप्त स्तनपान और पूरक पोषण की सोच को विकसित करने के लिए माताओं के भरोसे को सही अर्थों में बढ़ाना होगा ताकि वे अपने बच्चों को सफलतापूर्वक स्तनपान करा सकें। इसके अलावा यह भी जरूरी है कि पिता/अन्य पारिवारिक सदस्यों की ओर से समुचित समर्थन सुनिश्चित कर, कामकाज की स्थितियां बेहतर कर और घरेलू जिम्मेदारियां कम करके माताओं के लिए सही माहौल बनाया जाए। इससे अपने बच्चों की सेवा में जुटी माताएं स्तनपान के लिए पर्याप्त समय दे सकेंगी। अगर कोई मां अपर्याप्त स्तनपान की समस्या से जूझ रही है अथवा उसे बच्चे को स्तनपान कराने में दिक्कत आती है तो उसे डॉक्टर अथवा स्तनपान कराने वाली अन्य महिलाओं से सलाह-मशविरा करना चाहिए ताकि उसे इस काम में विफलता हाथ न लगे और यह प्रक्रिया सतत जारी रहे। जहां तक कामकाजी माताओं का सवाल है, उन्हें पर्याप्त मातृत्व लाभ देने और उनके लिए विस्तृत छुट्टियां (जहां आवश्यक हो) सुनिश्चित करने की जरूरत है। इस संदर्भ में शिशु की देखभाल के लिए अवकाश देने की सरकारी पहल वाकई उत्कृष्ट कदम है। हालांकि लाभार्थियों को इस सुविधा का इस्तेमाल काफी सोच-समझ कर करना चाहिए।
उन माताओं में जो शिक्षित हैं, घर से बाहर काम करती हैं और उच्च/बेहद उच्च धनी वर्गों से ताल्लुक रखती हैं, स्तनपान बंद करने या जरूरत से कम स्तनपान कराने की संभावन ज्यादा रहती है। बहरहाल, समृद्ध भद्र वर्ग से जुड़ी दूसरी समस्यायें हैं। ज्यादातर माताएं जानबूझकर 6 महीने से पहले स्तनपान बंद कर देती हैं क्योंकि वे महसूस करती हैं कि लम्बे समय तक स्तनपान कराने से उनकी अपनी सेहत पर प्रभाव प़ड सकता है क्योंकि उन्हें अपने शिशु से जुड़ा रहना पडेगा। अपर्याप्त स्तनपान की वजह से समय से पहले ही पूरक दूध/स्तनपान विकल्प लागू कर देना पडता है जिससे मां की भूमिका और नवजात शिशु देखभाल पद्धति में परिवर्तन आ जाता है। वास्तव में, यह सब आज तेजी से बदलती आधुनिक जिंदगी की जटिलताओं की वजह से होता है बजाए अपर्याप्त स्तन दुग्ध उत्पादन के। दुनियाभर में अनुसंधानकर्ताओं ने यह साबित किया है कि ज्यादातर माताएं अपने शिशुओं को पर्याप्त दूध पिलाने में सक्षम हैं और यह भावना कि उनका दूध पर्याप्त नहीं है अकसर अन्य कारणों से आती हैं जिसमें एक स्तन से आंशिक दुग्धपान, स्तन पर शिशु की गलत अवस्था, स्तनाग्र की सूखी अवस्था, स्तनपान कराने वाली दो कडि़यों के बीच लम्बा अंतर आदि शामिल हैं। इसके अलावा माता-पिता/माताएं व्यवसायी रूप से उत्पादित शिशु दूध/नवजात आहारों के लुभावने विज्ञापनों के बहकावे में आ जाती हैं और स्तन, दुग्ध विकल्पों पर उनकी निर्भरता स्तनपान की लागत को बढ़ा देती हैं। इन व्यावसायिक नवजात फॉर्मूले के लिए वरीयता कई बार चिकित्सकों की अनुशंसाओं से भी प्रभावित होती हैं क्योंकि उनमें से कई चिकित्सक लगातार इन आहारों की अनुशंसा करते हैं और दावा करते हैं कि व्यावसायिक नवजात दुग्ध/आहार उनके शिशु को बेहतर पोषण मुहैया कराने में सहायक होगा। इसके अतिरिक्त, बदलती जीवन शैली और कामकाजी महिलाओं की बढ़ती संख्या, जो अपने पेशे में सफल होना चाहती हैं, खुद ही सुविधाजनक शिशु आहार विकल्प के लिए व्यावसायिक नवजात दुग्ध/आहारों को बढ़ावा देती हैं। शिक्षित, भद्र महिलाओं के लिए ध्यान रखने की एक बात है। याद रखिए.....अधिकतम स्तनपान और पूरक आहार अपनाना आपके शिशुओं की पौष्टिकता, सेहत, शारीरिक तथा मानसिक वृद्धि, भावनात्मक और सामाजिक विकास के लिए आपका एक निवेश है और इस प्रकार जीवनभर के लिए उसके व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए जरूरी है।
माताओं को अधिकतम नवजात आहार प्रचलन को बनाये रखने के प्रति काफी जागरूक रहने की जरूरत है। स्तन, दुग्ध की अपर्याप्तता कामकाज के व्यस्त कार्यक्रमों जैसे रोजाना की छोटी समस्याओं को अभिनव रणनीतियों के जरिये दूर करने की जरूरत है जिसका क्रियान्वयन जरूरत के हिसाब से किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त पिता और परिवार के अन्य सदस्यों का पर्याप्त सहयोग भी बहुत महत्वपूर्ण है। माता की मनोवैज्ञानिक और सामाजिक बेहतरी तथा माता तथा शिशु के बीच बेहतर मेलजोल का माता के दूध पिलाने के प्रदर्शन पर काफी सकारात्मक प्रभाव पडता है। इसलिए, यह आवश्यक है कि माता को सही प्रकार का वातावरण, खासकर तनाव मुक्त माहौल मुहैया कराया जाये जिससे कि वह सफलतापूर्वक बच्चे को स्तनपान करा सके। व्यावसायिक रूप से प्रचारित प्रचलनों का आंख मूंदकर अनुकरण नहीं करना चाहिए। उनका चुनाव उनके प्रभावों की उचित समझ के बाद ही किया जान चाहिए। केवल अपरिहार्य परिस्थितियों में ही स्तनपान से वैकल्पिक आहार की ओर शिफ्ट करने जैसे अप्रत्याशित कदम उठाये जाने चाहिए। जब कोई और चारा न रह जाये अन्यथा स्तनपान ही सर्वोत्तम तरीका है।
ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं है जिससे स्तनपान संबंधी सारी समस्याएं दूर हो जाएं। इसलिए, अब हम अपनी पूरी शक्ति लगा कर एक ऐसे समाज का निर्माण करें जहां सभी महिलाएं अपने बच्चों को स्तनपान करायें और सभी बच्चों को पर्याप्त मात्रा में मां का दूध मिल सके।
स्तनपान के समय से शुरू करने से, विशेष तौर पर छह महीने तक बच्चों को स्तनपान कराने और उसके बाद दो वर्ष या उससे ज्यादा अवधि तक स्तनपान के साथ ही पूरक आहार देने से बच्चे अतिसार, पेचिस, निमोनिया जैसे कई रोगों और संक्रमण से भी बचाव हो जाता है। इसके साथ ही बच्चों की असामयिक मौत का भी खतरा कम हो जाता है।
*डा संतोष जैन पासी, पूर्व निदेशक, इंस्टीचयूट आफ होम इकोनोमिक्स, दिल्ली विश्वविद्यालय
** डा. वंदना सभरवाल, असिस्टेंट प्रोफेसर, इंस्टीच्यूट आफ होम इकोनोमिक्स, दिल्ली विश्वविद्यालय
*** सुश्री अकांक्षा जैन, अनुसंधान सहायक, पीएचएन, एल एस टेक वेंचर्स प्राइवेट लिमिटेड, गुड़गांव
पीआईबी फीचर्स
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रविवार, 24 अगस्त 2014
स्तनपान : स्वास्थ्यवर्द्धक और जीवनरक्षक पहल
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